लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
गे की ओर
चला। सहसा राजा
साहब ने पूछा-जुलूस तो न
निकलेगा न?
इंद्रदत्ता-निकलेगा। मैं रोकना
चाहूँ, तो भी
नहीं रोक सकता।
इंद्रदत्ता
वहाँ से अपने
मित्राों को सूचना
देने के लिए
चले। जुलूस का
प्रबंधा करने में
घंटों की देर
लग गई। इधार
उनके जाते ही
राजा साहब ने
जेल के दारोगा
को टेलीफोन कर
दिया कि सूरदास
और सुभागी को
छोड़ दिया जाए
और उन्हें बंद
गाड़ी में बैठाकर
उनके घर पहुँचा
दिया जाए। जब
इंद्रदत्ता सवारी, बाजे आदि
लिए हुए जेल
पहुँचे, तो मालूम
हुआ, पिंजरा खाली
है, चिड़ियाँ उड़
गईं। हाथ मलकर
रह गए। उन्हीं
पाँवों पाँडेपुर चले। देखा,
तो सूरदास एक
नीम के नीचे
राख के ढेर
के पास बैठा
हुआ है। एक
ओर सुभागी सिर
झुकाए खड़ी है।
इंद्रदत्ता को देखते
ही जगधार और
अन्य कई आदमी
इधार-उधार से
आकर जमा हो
गए।
इंद्रदत्ता-सूरदास, तुमने तो
बड़ी जल्दी की।
वहाँ लोग तुम्हारा
जुलूस निकालने की
तैयारियाँ किए हुए
थे। राजा साहब
ने बाजी मार
ली। अब बतलाओ,
वे रुपये क्या
हों, जो जुलूस
के खर्च के
लिए जमा किए
गए थे?
सूरदास-अच्छा ही हुआ
कि मैं यहाँ
चुपके से आ
गया, नहीं तो
सहर-भर में
घूमना पड़ता! जुलूस
बड़े-बड़े आदमियों
का निकालता है
कि अंधो-भिखारियों
का? आप लोगों
ने जरीबाना देकर
छुड़ा दिया, यही
कौन कम धारम
किया?
इंद्रदत्ता-अच्छा बताओ, ये
रुपये क्या किए
जाएँ? तुम्हें दे
दूँ?
सूरदास-कितने रुपये होंगे?
इंद्रदत्ता-कोई तीन
सौ होंगे।
सूरदास-बहुत हैं।
इतने में भैरों
की दूकान मजे
में बन जाएगी।
जगधार को बुरा
लगा, बोला-पहले
अपनी झोंपड़ी की
तो फिकर करो!
सूरदास-मैं इसी
पेड़ के नीचे
पड़ रहा करूँगा,
या पंडाजी के
दालान में।
जगधार-जिसकी दूकान जली
है, वह बनवाएगा,
तुम्हें क्या चिंता
है?